कर्ता, भोक्ता, स्वामित्व भावों को कर्तित्त्व भाव कहते हैं। पर इनसे अहम् आने की सम्भावना रहती। ये भाव संसार तथा परमार्थ दोनों में आते हैं।
क्षु.श्री जिनेन्द्र वर्णी जी
पानी में काई होती है, तब पानी काई के रंग का दिखने लगता है। पर पानी काई नहीं हो जाता है।
आत्मा में कर्म हैं। तब आत्मा उन कर्मों के अनुरूप व्यवहार करने लगता है। फिर भी आत्मा कर्म रूप नहीं हो जाता है।
आर्यिका पूर्णमति माताजी
मिट्टी का घड़ा बाहर की गर्मी को अंदर प्रवेश नहीं करने देता।
मनुष्य भी तो मिट्टी से बना/ मिट्टी में ही (घड़े की तरह) मिल जाता है।
तब हम क्यों नहीं घड़े का यह गुण अपने अंदर उतार सकते!
कर्म हमको घुमाता (घन-चक्कर करता) है, पर वह भी हमारे द्वारा घूमता है (कर्म अपना फल देकर दुबारा फिर-फिर बंध कर आता रहता है)।
क्षु. श्री जिनेन्द्र वर्णी जी
भगवान महावीर के जन्म-कल्याण ( जयंती ) पर
शुभ कामनाएं ।
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They tried to bury us,
they didn’t know we were seeds.
Ekta- Pune (Mexican Proverb)
( * पलटाव/ लौटाव )
धर्म की साधना का उद्देश्य सत्य को पाना बाद में,
पहले झूठ को पहचानना/ छोड़ना होना चाहिये।
चिंतन
जब भगवान हर जगह है तो मंदिर क्यों जायें ?
भगवान हर जगह हैं कहाँ ?
हाँ ! हर जीव भगवान बन सकता है।
जैसे कलेक्टर हर जगह नहीं है। हाँ ! हर व्यक्ति कलेक्टर बन सकता है।
निर्यापक मुनि श्री सुधासागर जी
आदमी के “गुण”
और
“गुनाह” दोनों की कीमत होती है।
अंतर सिर्फ इतना है कि
“गुण” की कीमत मिलती है
और
“गुनाह” की कीमत चुकानी पड़ती है !
(आतिफ़ – कनाडा)
(एन.सी.जैन)
ओस
की एक बूंद
सा है जिंदगी का सफर
कभी ” फूल” में तो, कभी धूल में
प्रणाम 3 प्रकार के →
1. पंच प्रणाम → घुटने मोड़े, हाथ जोड़े, सिर झुका लिया।
2. षट प्रणाम → घुटने मोड़े, हाथ जोड़े, सिर जमीन पर लगाया।
3. दंडवत → जमीन पर लेट कर।
मुनि श्री प्रणामसागर जी
धान कूटते देख कर तो पता नहीं लगता कि व्यक्ति धान कूट रहा है या छिलके (क्योंकि ऊपर छिलके ही दिखते हैं)।
धार्मिक क्रियाओं को देख कर हम सामने वाले का पता नहीं कर सकते कि भाव सहित कर रहा है या नहीं।
सो अपनी क्रियाओं पर ही ध्यान दें और भाव सहित करें।
शांतिपथ प्रदर्शक
आत्मभूत = जो अपने स्वभाव में हो/ आत्मा में हो।
स्व–स्वभाव में अचेतन भी रहते हैं।
मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (तत्त्वार्थ सूत्र- शंका समाधान)
(फिर हम तो चेतन हैं, हम क्यों नहीं अपने स्वभाव में रह पाते ? दूसरों में हमेशा क्यों उलझे रहते हैं ??)
बैरी को Forget करने से काम नहीं चलेगा क्योंकि बैरी को दुबारा देखने पर फिर से बैर-भाव Revive हो जाएगा।
सो Forget के साथ Forgive भी ज़रूरी है, वह भी Forever के लिये।
तब क्षमा करते ही वह बैरी रह ही नहीं जाएगा। ज्यादतर गल्तियाँ अपनों से ही होती हैं और वे दुखदायी भी ज्यादा होती हैं। पर अपनों को बैरी बनाकर जी भी तो नहीं सकते।
नीरज जैन – लंदन (चिंतन)
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